Qala Review: हिंदी सिनेमा में फिर बजे हिंदुस्तानी सरगम के साज, अमित त्रिवेदी का संगीत बना फिल्म का असली हीरो
नेटफ्लिक्स वाकई हिंदुस्तानी हो रहा है। डरा हुआ सा, सहमा हुआ सा। कभी खराब से खराब फिल्में रिलीज के हफ्ते भर पहले दिखा देने वाला नेटफ्लिक्स अब अपनी बेहतरीन फिल्में भी रिलीज के दिन तक सीने से लगाकर रखता है। कला के क्षेत्र में डरना अच्छे दिनों की पहचान है। हर कलाकार के भीतर अपनी नई कलाकृति को लेकर ये डर बना ही रहता है। अंग्रेजी में जिसे ‘बटरफ्लाईज इन स्टमक’ कहते हैं और हिंदी में नरभसाना भी कह जाते हैं, वैसा ही कुछ हाल नेटफ्लिक्स का लगता है। लेकिन, उसका कहानियों का चयन इधर शानदार हो चला है। ‘मोनिका ओ माय डार्लिंग’ के तुरंत बाद ‘कला’। एक और ऐसी फिल्म जिसे देखने का और साथ ही सुनने का असली मजा सिनेमा हॉल में ही आ सकता है। फिर भी अगर ये फिल्म आप अपने स्मार्ट टीवी पर बढ़िया म्यूजिक सिस्टम के साथ देखें तो जाता हुआ साल थोड़ा और सिनेमाई हो जाएगा। कला फिल्म हिंदी फिल्मों के लौटकर ‘सिनेमा’ की तरफ आने की जोर की दस्तक है और ये दस्तक इस बात की भी है कि अमित त्रिवेदी को हिंदी फिल्मों के बड़े निर्माता खुली छूट दें तो वह अब भी सिर्फ अपने गानों के बूते दर्शकों को खींचकर सिनेमाघरों तक ला सकते हैं।
कहानी बापू के सोलन आने के जमाने की
फिल्म ‘कला’ के अंग्रेजी रिव्यू थोड़ा पहले आ चुके होंगे क्योंकि उनको ये फिल्म अपनी तरह रिलीज के दिन 12 बजे डेढ़ बजे तक के एम्बार्गो के साथ नहीं मिला। हिंदी सिनेमा में हिंदी की कलाएं अब भी कृष्ण पक्ष में ही अटकी हैं। फिर ‘कला’ तो है भी उस दौर की जब सब कुछ अंग्रेजी में ही होता रहा होगा शायद। अखबार भी फिल्म में अंग्रेजी के ही दिखते हैं। जिक्र सोलन आए बापू का होता। इंदिरा की फोटो खींचने वाली महिला फोटोग्राफर का होता है। आधा बना हावड़ा ब्रिज दिखता है। यानी कि कहानी देश को आजादी मिलने से ज्यादा पीछे की नहीं है। लेकिन है ये बंटवारे के दर्द के जैसी ही। बंटवारा तब धरती का हुआ नहीं था। सिनेमा तब भी लाहौर और कलकत्ता में ही चमक रहा था। एक मां को जुड़वा बच्चों की आस है। डॉक्टर उसके हाथ में लाकर बेटी धर देता है क्योंकि बेटी ने गर्भ में ज्यादा हिस्सा ले लिया पोषण का, तो बेटा बच नहीं पाया। पता नहीं मां ने तकिये से बेटी का गला घोंटने की कोशिश की या मुझे ही ऐसा भ्रम हुआ, लेकिन ये तकिया पूरी फिल्म बेटी की नाक से ही सटा रहता है।
बेटा ना पा सकी मां की घृणा
कुपुत्रो जायते, माता कुमाता न भवति, मानने वाले देश में फिल्म ‘कला’ एक ऐसी मां की कहानी है जिसे अपनी सगी बेटी से ज्यादा गुरुद्वारे से उठाकर लाए गए गवैये से प्यार है। और, इतना प्यार कि उसे फिल्मों में मौका दिलाने के लिए वह उस वक्त के नामचीन गायक चंदन लाल सान्याल के सामने बिछने को तैयार है। मां से उसकी उम्मीद के मुताबिक गायिकी न सीख सकी कला मौका पाने का ये हुनर सीख लेती है। मौका मिलता है। शोहरत मिलती है और शोहरत की बुलंदियों तक आने पर उसे याद आता है वह गवैया जिसका मौका उसने कभी धोखे से छीन लिया था। इसके बाद कला अपनी नजरों में जहां से गिरती है, फिल्म ‘कला’ वहां से शुरू होती है। समय के कालखंडों में आगे पीछे आती जाती ये फिल्म एक बार देखना शुरू करने के बाद खुद से दूर नहीं जाने देती।
सिनेमा संगीत के पीछे की कलाएं
हिंदी फिल्म ‘कला’ कई कलाओं से गुजरकर पूरा होता चांद है। इसमें गीतकार जो दिखता है उसका नाम मजरूह है। वह कहता है, ‘दौर बदलेगा, दौर की ये पुरानी आदत है।’ एक संगीतकार मौका देने के नाम पर एक उभरती गायिका को भोग रहा है। उस गायिका को जिसको उसकी मां ने बचपन में जो पहली सीख दी, वह ये थी कि नाम के पहले पंडित लगना चाहिए, बाद में बाई नहीं। वह बेटी जमाने के सीखे चलन के हिसाब से वहां तक भी पहुंचती है जब खुद को स्टारमेकर समझने वाले के हाथ से ऑटोग्राफ बुक छीन पब्लिक नए उभरते सितारे की तरफ भागती है। ‘कला’ सिनेमा में होने वाली कलाबाजियों की भी कहानी है। और, ‘कला’ हर उस कला की बेहतरीन बानगी भी है जो सिनेमा को बनाने में जरूरी होती हैं।
अन्विता दत्त फिर चैंपियन!
अन्विता दत्त की लेखन और निर्देशन कला का ये फिल्म ‘बुलबुल’ के बाद एक और बेहतरीन नमूना है। दूसरे नंबर पर इसमें हैं अमित त्रिवेदी की कला। संगीत निर्देशन की कला। ओटीटी पर ‘बंदिश बैडिट्स’ के बाद अगर किसी सीरीज या फिल्म ने हिंदुस्तानी संगीत को जिया है तो वह है फिल्म ‘कला’। ‘जेडा नशा’ और ‘आप जैसा कोई मेरी जिंदगी में आए’ जैसे गाने दिखाकर एक अच्छी खासी फिल्म देखने की उत्सुकता खत्म कर देने वालों को ये फिल्म देखनी चाहिए। मैं शर्त लगा सकता हूं कि आप सिर्फ इसके गाने इतवार की सुबह अपने म्यूजिक सिस्टम पर बजाइए। पड़ोसी पूछने आ जाएंगे कि भई, ये कहां का गाना है, किसी फिल्म का, या अलबम का? खासतौर से ‘हंस अकेला…!’ कबीर के निर्गुन का किसी फिल्म में इतना बेहतरीन इस्तेमाल गीतकार से फिल्मकार बना कलाकार ही कर सकता है। अमिताभ भट्टाचार्य का लिखा और शिरीषा भवगतुला का गाया ‘काहे सैंया घोड़े पे यूं सवार हैं..’ इस साल का ‘साथ हम रहें’ के बाद का दूसरा बेहतरीन फिल्मी गाना है।
कला विभाग की अद्भुत कला
एक फिल्म बनाने में कोई तैंतीस तरह की कलाएं काम आती हैं यानी कि चंद्रमा के घटकर गायब होने और फिर बढ़कर पूरा चांद हो जाने से भी कोई तीन दिन ज्यादा। और, इतनी ही कलाएं दिखाकर इसकी प्रोडक्शन डिजाइनर मीनल अग्रवाल ने इस फिल्म का माहौल रचा है। ये माहौल अपने आप में फिल्म ‘कला’ का एक किरदार है। वेशभूषाएं बनाने वाली वीरा कपूर इसमें चौदहवीं का चांद बनकर आती हैं तो साउंड डिजाइनर प्रीतम दास का हावड़ा ब्रिज बनने की खटखट का फिल्म के बेहद अहम सीन में इस्तेमाल दिल जीत लेता है। उधर पुल बन रहा है, इधर एक दानवाकृति उस ओर इशारा कर रही है, जिस गर्त में कोई कलाकार सिर्फ एक मौका पाने के लिए मजबूर किया जा सकता है।
स्त्री प्रधान फिल्म में चमके अमित, समीर और बाबिल!
अभिनय के मामले में फिल्म ‘बुलबुल’ से तृप्ति डिमरी इस बार उन्नीस नहीं बल्कि अट्ठारह पर आकर टिकी हैं। असुरक्षा की भावना के भाव उनके चेहरे पर एक जैसे ही रहते हैं। चाहे फिर डर मां की अस्वीकृति का हो या भोगने का एक और मौका तलाश रहे संगीतकार का। स्वास्तिका मुखर्जी भी पूरी फिल्म में बस एक ही भाव में अपनी कला को हल्का करती रहीं। हिमाचल प्रदेश में नथनी, कंगन जैसा भारी भरकर पहनने वाली कलकत्ता आकर उसे क्यों त्याग देगी भला? उसे सुकून देने वाले गीतकार के रोल में वरुण ग्रोवर अच्छे लगते हैं। अमित सियाल और समीर कोचर ने भी अपनी अभिनय कला का असर एक ऐसी फिल्म में छोड़ा है, जिसके दोनों मुख्य पात्र महिलाएं निभा रही हैं। वैसे, वरुण ग्रोवर ने नेल पॉलिश सिर्फ एक ही सीन में क्यों लगाई, ये बताना अन्विता दत्त भूल गईं। स्टूडियो के भीतर तक बीड़ी सिगरेट पी सकने वाले जमाने की ये फिल्म बड़ों के लिए इस सप्ताहांत की अव्वल नंबर फिल्म है। और हां, फिल्म में बाबिल भी तो हैं। दिखते वह थोड़ा थोड़ा अपने वालिद इरफान खान जैसे ही हैं लेकिन ‘हंस अकेला..’ में उनका अभिनय उनकी कला की परखी है, समझ आता है कि अभिनय असली है।
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