NRI Wives Review: सिनेमा के नाम पर मजाक बनी फिल्म ‘एनआरआई वाइव्स’, गुंजन कुठियाला की फिल्मावली चारों खाने चित
अपने काम के साथ हम अपने परिवार को कितना समय दे पाते हैं, और अगर नहीं दे पाते है तो उसका असर परिवार पर खासकर पत्नी पर कितना पड़ता है, इस विषय पर देखा जाए तो हिंदी सिनेमा में अब तक कई फिल्में बन चुकी हैं। बात हर कहानी में उसी एक जगह आकर अटकती है कि पैसा जरूरी है या परिवार। क्या पैसे के पीछे अपने भागता इंसान अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को समय नहीं दे पाता है या फिर परिवार वाले उससे उम्मीद बहुत ज्यादा लगा लेते हैं? काम की व्यस्तता के चलते अगर इंसान अपनी पत्नी को समय नहीं दे पा रहे हैं, तो क्या पत्नी का दूसरे पुरुष के तरह आकर्षित होना सही है। जिंदगी में सेक्स या वासना ही सबकुछ है या फिर उससे परे भी जिंदगी में कुछ और है। ऐसे तमाम सवालों के जवाब का फिल्म ”एनआरआई वाइव्स: ग्रे स्टोरीज ऑफ लव वर्सेज डिजायर्स’ अपने आप में समेटे हुए है।
फिल्म ‘एनआरआई वाइव्स: ग्रे स्टोरीज ऑफ लव वर्सेज डिजायर्स’ चार कहानियों की फिल्मावली है। इन कहानियों के जरिये फिल्म मानवीय रिश्तों, भावनाओं, इच्छाओं और जिज्ञासा के ग्रे शेड में गोते लगती है। चारों कहानियों का एक दूसरे से कोई मेल नहीं है। पहली कहानी ‘ओल्ड सीक्रेट’ राइमा सेन, गौरव गेरा और सादिया सिद्दीकी के इर्द गिर्द घूमती है। दूसरी कहानी भाग्यश्री, हितेन तेजवानी और कपिल अरोड़ा के इर्द गिर्द घूमती है। तीसरी कहानी ‘डिजायर्स’ कीकू शारदा, अदिति गोवारिकर, जावेद पठान, विधि दहिया और तीसरी कहानी ‘टैबू’ जुगल हंसराज, गुंजन कुठियाला, समीर सोनी, ओलिविआ मल्होत्रा के इर्द गिर्द घूमती है।
फिल्म ‘एनआरआई वाइव्स: ग्रे स्टोरीज ऑफ लव वर्सेज डिजायर्स’ की चारो कहानियों के माध्यम से कहीं ना रिश्तों में आई कड़वाहट, रोमांस, विश्वासघात से लेकर दिल टूटने तक की बातों पर जोर दिया गया है। इस सब बातों के बीच सामंजस्य कैसे बिठाया जा सकता है, इसे अपनी कहानी के माध्यम से फिल्म की लेखक और निर्माता गुंजन कुठियाला ने कहने की कोशिश की है। लेकिन, चारों कहानिया देखने के बाद ऐसा लगता है कि इन चारों कहानियों को लिखने के पीछे गुंजन कुठियाला की जो सोच रही होगी वह स्क्रीन पर ठीक से नजर नहीं। चार कहानियों में गुंजन कुठियाला ने एक कहानी टैबू का निर्देशन भी उन्होंने किया है और उसमें एक्टिंग भी की है और बस इसी एक फिल्म से गुंजन के ये फिल्म बनाने का असली मकसद भी उजागर हो जाता है।
गुंजन कुठियाला को सिनेमा का ए, बी, सी भी नहीं पता है। सिर्फ अमेरिका में रहने, पैसे होने और थोड़ा बहुत सुंदर दिखने भर से सिनेमा नहीं बन जाता, ये गुंजन कुठियाला को समझना जरूरी है। फिल्ममेकिंग के जो मूलभूत 13 विभाग होते हैं, उनके बारे में भी उनको खास जानकारी है नहीं। हां, इस फिल्म में इस बात का इतना जरूर ख्याल रखा गया है कि फिल्म का बोल्ड कंटेंट के बावजूद इसमें बोल्ड सीन से बचा गया है। अगर फिल्म के फ्रेम में कलाकार कैमरे का एंगल बदलते ही कोई और इंसान ही दिखने लगे तो ऐसी फिल्म पर तरस आता है। शूटिंग के समय इस बात का भी ध्यान नहीं रखा गया कि आर्टिस्ट को जो माइक्रोफोन लगाया गया है, उसे ही ठीक से लगा दिया जाए। संवाद अदायगी, कॉस्ट्यूम्स का और बुरा हाल है।
फिल्मावली के विभु कश्यप, रे खान, गुंजन कुठियाला, कैद कुवाजेरवाला अलग -अलग निर्देशक हैं, लेकिन किसी के निर्देशन में ऐसी कोई खास बात नजर नहीं आई, जिसकी थोड़ी तारीफ की जा सके। चार कहानी के बजाय अगर एक ही कहानी को थोड़ा सा और डेवलेप करके उस पर मेहनत करने की कोशिश की गई होती तो एक बेहतर फिल्म की उम्मीद की जा सकती थी। बस, फिल्म के गाने जरूर थोड़े अच्छे बने हैं चाहे वह ‘हे पुरवैया’ हो या फिर ‘कौन कहता है’, ‘बहने का बहाना’ सुनने में अच्छा लगता है। इस मामले में संगीतकार आशीष रेगी ही बस इकलौते तकनीशियन हैं जिनके काम में ईमानदारी है।
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